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गुरुवार, 15 जुलाई 2010


चाँद चमकता है
तुम तक ले जाता है
रात बहकती है
तुम याद आते हो
बूंदे बरसती हैं
तुम्हारा चेहरा बन जाता है
रातरानी खिल खिल कर
जिस्म और रूह को
तुम तक ले जाती है
रोकती हूँ खुद को तुम्हारी यादों से
पर तुम!!!
तुम्हारी उस बैचेनी से ही
कहाँ रह पाते हो आपे में
अपने आप ही कि तरह
बार बार आते हो ज़हन में
चोरी से नहीं
जिद से
क्यों आते हो
क्या है अब यहाँ
वो जिस्म जो सिर्फ
तुम्हारी अमानत बना
रख छोड़ा था
भरी बरसात में
सूखा पड़ा है
वो जान जो
तुम्हारे नाम थी
अब कुछ भी याद नहीं करती
सब मान गए हैं
कि तुम बेवफा हो
पर इन आँखों का क्या करूँ
जो अब भी  लगती नहीं
जो अब भी मानती नहीं
पत्थर हो गई हैं
पर गाहे ब गाहे
तुम्हारे स्पर्श को याद कर
गीली हो उठती हैं
अब दुआ दो
या तो ये खुली रह जाएं
या बंद हो जाएं
दो न जान..................!

2 टिप्‍पणियां:

  1. आप के लिखने अंदाज़ पसंद आया .....नज्मो की तरह लिखती है आप....बहुत खूब ....ऐसे ही लिह्क्ति रहिये.....कभी वक़्त हो तो हमारे ब्लॉग पर भी तशरीफ़ लायें ......

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