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रविवार, 18 जुलाई 2010

बिछड़ा है एक बार तो फिर मिलते नहीं देखा
इस ज़ख्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा

एक बार जिसे चाट गई धूप की ख्वाहिश
फिर शाख पे उस फूल को खिलते नहीं देखा


कांटो में घिरे फूल को चूम आएगी लेकिन
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा

किस तरह मेरी रूह हरी कर गया आखिर
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा
-------------(परवीन शाकिर)





1 टिप्पणी:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी मन के भावों को बहुत गहराई से लिखा है

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