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शनिवार, 17 जुलाई 2010
आओ कि कोई ख्वाब बुने कल के वास्ते
वरना ये रात आज के संगीन दौर की
डस लेगी जान-ओ-दिल को कुछ इस तरह कि जान-ओ-दिल
ताउम्र फिर कभी न कोई ख़्वाब बुन सके.......
2 टिप्पणियां:
विजयप्रकाश
17 जुलाई 2010 को 10:51 pm बजे
अच्छी कविता
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संजय भास्कर
22 जुलाई 2010 को 2:47 am बजे
lajwaab rachnaa......
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जवाब देंहटाएंlajwaab rachnaa......
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