मेरी साडी के एक छोर पर तुमने एक दिन कुछ लिखा था. मैंने वह साड़ी उस दिन के बाद न धोई, न पहनी! आज इतने दिन बाद , जब वो लिखावट बेमानी है, अलमारी से गिर कर ,साड़ी ने वह लम्हे ज़िंदा कर दिए हैं. मैंने पढ़ा तो देखा, धीमे से एक कविता बन गयी है:
शाम होने को है
लाल सूरज समंदर में खोने को है
और उसके परे कुछ परिंदे
कतारें बनाए
उनीं जंगलों को चले
जिनके पेड़ों की शाखों पे हैं घोसलें
ये परिंदे वहीं लौट कर जाएंगे
शाम होने को है
हम कहाँ जाएंगे?
जावेद अख्तर