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शुक्रवार, 30 जुलाई 2010


हिज्र की शब् का किसी तौर से कटना मुश्किल
चाँद पूरा है तो फिर  दर्द का     घटना मुश्किल   

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

शरारत


आओ इस मौसम में आकर कोईं शरारत कर बैठो
अल्लाह अल्लाह खामोशी से हूँ कितनी हैरान सी मै
                    खुशी              

रविवार, 25 जुलाई 2010

बारिश

पैरों की मेहंदी मैंने
किस मुश्किल से छुड़ाई थी
और फिर बैरन खुशबू से कैसी कैसी
बिनती की थी
प्यारी धीरे बोल
भरा घर जाग उट्ठेगा
लेकिन जब उसके आने की घड़ी हुई
सुबह से ऐसी झडी लगी
उम्र में पहली बार मुझे
बारिश अच्छी नहीं लगी.

माँ


 "वो एक लम्हा कि मेरे बच्चे ने माँ कहा मुझको
मै एक शाख से कितना घना दरख़्त हुई!!! "
                                                      -परवीन शाकिर

शनिवार, 24 जुलाई 2010

काश! वह रोज़े हश्र भी आए....


 तू मेरे हमराह खडा हो
सारी दुनिया पत्थर लेकर 
जब मुझको संगसार करे
तू अपनी बांहों में छुपाकर
तब भी मुझ से प्यार करे...!!!!! 

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010


याद कुछ इस तरह जगाती है
टुकड़ों टुकड़ों में नींद आती है
मौत की दुश्मनी है पल भर की
ज़िंदगी उम्र भर रुलाती है
                                  डॉ. कुअर बेचैन

 "रात तो निकल ही आई क़त्ल-गाहों से,
साथ जो ख़्वाब थे, सारे शहीद हो गए....."
                                 -अज्ञात
    

रविवार, 18 जुलाई 2010

कड़ी धूप में छाओं जैसी बातें करतें हैं
आंसू भी तो माओं जैसी बातें करतें हैं

रास्ता देखने वाली आँखों के अन्होने ख़्वाब
प्यास में भी दरयाओं जैसी बातें करते हैं

खुद को बिखरता देखते हैं कुछ कर नहीं पातें हैं
फिर भी लोग खुदाओं जैसी बातें करतें हैं

एक ज़रा सी जोत के बल पर अंधियारों से बैर
पागल दिए हवाओं जैसी बातें करें हैं 






मुझे प्यार करते हो करते रहो तुम......

मुझे प्यार करते हो करते रहो तुम
मगर दिल लगाने की  कोशिश न करना
कि खुशबू हूँ मै मुझको महसूस करना
मगर मुझको पाने की कोशिश न करना

जो हंस लूं तो क्या है, जो रो लूँ तो क्या है
ये हंसना भी फानी, वो रोना भी फानी
कि कुछ भी नहीं सालता मेरे दिल को
ये पत्थर गलाने की कोशिश न करना

सुना है कि प्यार मरता नहीं है
जो मरता नहीं है तो जाता कहाँ है
यहाँ है, वहा है तो सचमुच कहाँ है
मुझे ये बताने की कोशिश न करना
                      -दीप्ति मिश्र 

बिछड़ा है एक बार तो फिर मिलते नहीं देखा
इस ज़ख्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा

एक बार जिसे चाट गई धूप की ख्वाहिश
फिर शाख पे उस फूल को खिलते नहीं देखा


कांटो में घिरे फूल को चूम आएगी लेकिन
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा

किस तरह मेरी रूह हरी कर गया आखिर
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा
-------------(परवीन शाकिर)





शनिवार, 17 जुलाई 2010

आओ कि कोई ख्वाब बुने कल के वास्ते
वरना ये रात आज के संगीन दौर की
डस लेगी जान-ओ-दिल को कुछ इस तरह कि जान-ओ-दिल
ताउम्र फिर कभी न कोई ख़्वाब बुन सके.......  

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

भूल गए वो दिन
भूल गए वो रातें ओंर बातें
भूल गए वो ख्वाब
भूल गए वो रंग-तरंग
पर क्या
वो बच्चा भी भूल गए
जो मेरे ओंर तुम्हारे ख्वाबों में
साथ साथ हलचल मचाता था

बोलो ?

लबों ने लबों से
जब कुछ कहा था
नज़र ने नज़र से
जिद में पढ़ा था
वो अनकही
क्या तुम्हारे ज़हन में
अब भी है
और है
तो क्या तुम भी
मेरी तरह छुप छुप के
पूरी बरसात
रोते रहते हो
बोलो ?

चाँद चमकता है
तुम तक ले जाता है
रात बहकती है
तुम याद आते हो
बूंदे बरसती हैं
तुम्हारा चेहरा बन जाता है
रातरानी खिल खिल कर
जिस्म और रूह को
तुम तक ले जाती है
रोकती हूँ खुद को तुम्हारी यादों से
पर तुम!!!
तुम्हारी उस बैचेनी से ही
कहाँ रह पाते हो आपे में
अपने आप ही कि तरह
बार बार आते हो ज़हन में
चोरी से नहीं
जिद से
क्यों आते हो
क्या है अब यहाँ
वो जिस्म जो सिर्फ
तुम्हारी अमानत बना
रख छोड़ा था
भरी बरसात में
सूखा पड़ा है
वो जान जो
तुम्हारे नाम थी
अब कुछ भी याद नहीं करती
सब मान गए हैं
कि तुम बेवफा हो
पर इन आँखों का क्या करूँ
जो अब भी  लगती नहीं
जो अब भी मानती नहीं
पत्थर हो गई हैं
पर गाहे ब गाहे
तुम्हारे स्पर्श को याद कर
गीली हो उठती हैं
अब दुआ दो
या तो ये खुली रह जाएं
या बंद हो जाएं
दो न जान..................!

छन के आती है शिगाफों से हिना की खुशबू
किसने मेहंदी  भरे हाथों से ये दस्तक दी है
हथेलिओं कि दुआ फूल लेके आई हो
कभी तो रंग मेरे हाथ का हिनाई हो

कोई तो हो जो मेरे मन को रौशनी भेजे
किसी का प्यार हवा मेरे नाम लाइ हो

गुलाबी पाँव मेरे चंपाई बनाने को
किसी ने सहन में महंदी कि बाढ़ उगाई हो

वो  सोते जागते रहने के मौसमो का फूसों
के नींद में रहू और नींद भी न  आई हो ..........
                                - परवीन शाकिर                     


बुधवार, 7 जुलाई 2010

तुम जाग रहे हो मुझे अच्छा नहीं लगता चुपके से मेरी नींद, चुरा क्यों नहीं लेते ?

कैद में गुजरेगी जो, वो उम्र बड़े काम कि थी
पर मै क्या करती कि ज़ंजीर तेरे नाम कि थी

जिसके माथे पे मेरे बख्त का तारा चमका
चाँद के डूबने कि बात उसी शाम की  थी

वो कहानी कि सभी सुइयां निकली भी न थी
फिक्र हर शख्स को शहजादी  के अंजाम कि थी

बोझ उठाये हुए फिरती है हमारा अब तक
ऐ ज़मी माँ ! तेरी ये उम्र तो आराम की थी
                                      ( परवीन शाकिर)

शनिवार, 3 जुलाई 2010

तुम मुझको गुडिया कहते हो
सच कहते हो
खेलने वाले सब हाथों को 
गुडिया ही तो लगती हूँ मै
जो पहना दो मुझपे सजेगा
मेरा कोई रंग नई
जिस बच्चे के हाथ थमा दो
मेरी किसी से जंग नहीं
कूक भरो बीनाई लेलो
जब चाहे बीने लेलो
मांग भरो सिन्दूर सजाओ
प्यार करो
आँखों में बसो
और जब दिल भर जाए तो
दिल से उठा के टाक पे रख दो
तुम मुझको गुडिया कहते हो
सच ही तो कहते हो
                 प्रस्तुति : खुशी
परवीन शाकिर