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बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

प्रश्! तुम्हे याद है....?

मेरी साडी के एक छोर पर तुमने एक दिन  कुछ लिखा था. मैंने  वह साड़ी उस दिन के बाद न धोई, न पहनी! आज इतने दिन बाद , जब वो लिखावट बेमानी है, अलमारी से गिर कर ,साड़ी ने वह लम्हे ज़िंदा कर दिए हैं. मैंने पढ़ा तो देखा, धीमे से एक कविता बन गयी है:
शाम होने को है
लाल सूरज समंदर में खोने को है
और उसके परे कुछ परिंदे
कतारें बनाए
उनीं जंगलों को चले
जिनके पेड़ों की शाखों पे हैं घोसलें
ये परिंदे वहीं लौट कर जाएंगे 
शाम होने को है
हम कहाँ जाएंगे?
                जावेद अख्तर 


5 टिप्‍पणियां:

  1. खुशी जी ये लाईनें आदरणीय जगजीत सिंह जी की आवाज में बहुत अच्छी लगती है। आपने दोबारा याद दिला दिया। आभार।

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  2. आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा , आप हमारे ब्लॉग पर भी आयें. यदि हमारा प्रयास आपको पसंद आये तो "फालोवर" बनकर हमारा उत्साहवर्धन अवश्य करें. साथ ही अपने अमूल्य सुझावों से हमें अवगत भी कराएँ, ताकि इस मंच को हम नयी दिशा दे सकें. धन्यवाद . हम आपकी प्रतीक्षा करेंगे ....
    भारतीय ब्लॉग लेखक मंच
    डंके की चोट पर

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  3. ab ap kuch or kyu nhi likh rhe ho.. miss u ur thought...... really

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