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सोमवार, 23 अगस्त 2010

तुम आज


(1)
आज पूरे हो
कोई दुख नहीं
कोई उलझन नहीं
बादलों पर चलते हो
हवा पर हुकुम चलाते हो
कभी याद करते हो
उस अधूरेपन को
जो सिर्फ पूरा होता था
हमारे मिलने पर
जँहा से मिली थी
पूरे होने की प्रेरणा
जँहा से उपजी थी चाह
फैली थी उजास
जिए थे तुम
सपनो के आस पास
आज
आज पूरे हो
तो याद नहीं आता
वह अधूरापन?
सर नहीं उठाती
कोई तड़पन?
दिल पर हाथ रख कर कहो
क्या तुम पूरे हो?
या मेरी ही तरह
आज तक 
अधूरे हो?
(2)
मै खिलौना थी
तो तोड़ने की अपेक्षा
छोड़ गए होते
मै फूल थी तो मसलने कि बजाय
सुखा कर डायरी में रख लिया होता
मै अगर औरत सी लगती थी
तो मन की निजता मै एक कोना तो दिया होता
अफ़सोस !!!!
तुम्हारे लिए तो मै सिर्फ एक ज़ात थी
क्षुद्र! अछूत!!  विजातीय!!! 
कितने विशेषण थे
जो मैंने तब सुने थे
जब कोई मर्द औरत को छोड़ते हुए जाता है
सही ही कहा था तुमने
ज़ात तो पुरुष की होती है
औरत तो हमेशा
ब्रहम्मा के पैरों से ही जन्मी है
(3)
मन तो अकेला है
तन से भी ज़्यादा
मन तो घायल है 
तन से भी ज़्यादा
मन तो दुखता है
तन से भी पहले
तो मै !!
मन का बंधन थी 
तभी ही,  
आज जब तन की हर ज़रूरत पूरी है
शायद मै तुम्हे मन बन कर याद आ रही हूँ
शिशिर कि रात्री मै
चौदस के चंद्रमा सी तड़पा रही हूँ!!!! 

बुधवार, 11 अगस्त 2010

ईद का चाँद

चाँद देखा तो याद आई सूरत तेरी 
हाथ उट्ठे हैं मगर हर्फे दुआ याद नहीं

बुधवार, 4 अगस्त 2010



अब्रे-बहार ने
फूल का माथा,
अपने बनफ्शी हाथो में लेकर
ऐसा चूमा
फूल के सारे दुःख
खुशबू बन कर बह निकले हैं